संत तुकाराम महाराज का अभंग: 'युक्ताहार न लगे आणिक साधनें'
संत तुकाराम महाराज का अभंग: 'युक्ताहार न लगे आणिक साधनें'
(कलियुग में भक्ति का सुलभ मार्ग)
अभंग:
अल्प नारायणें दाखविलें ॥१॥
कलियुगामाजी करावें कीर्तन ।
तेणें नारायण देईल भेटी ॥ध्रु.॥
न लगे लौकिक सांडावा वेव्हार ।
घ्यावें वनांतर भस्म दंड ॥२॥
तुका म्हणे मज आणिक उपाव ।
दिसती ते वाव नामेंविण ॥३॥
१. परमार्थ साधनाओं की सरलता (The Ease of Spiritual Practice)
युक्ताहार न लगे आणिक साधनें । अल्प नारायणें दाखविलें ॥१॥
तुकाराम महाराज अपने अभंग की शुरुआत ही एक बड़े दिलासे के साथ करते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर की प्राप्ति के लिए किसी भी जटिल मार्ग या शारीरिक यातना की कोई आवश्यकता नहीं है।
'युक्ताहार न लगे': इसका मतलब है कि मोक्ष के लिए अत्यंत कठोर आहार नियंत्रण, क्लिष्ट उपवास या शरीर को कष्ट देने वाली तपस्या करने की ज़रूरत नहीं है। योग मार्ग में बताए गए कड़े नियमों का पालन करने की कोई बाध्यता नहीं है।
'आणिक साधनें न लगे': इसका अर्थ है कि कठिन यौगिक क्रियाएँ, तंत्र-मंत्र या जटिल अनुष्ठान जैसे अन्य साधनों की भी ज़रूरत नहीं है।
'अल्प नारायणें दाखविलें': परमेश्वर (नारायण) ने स्वयं ही भक्ति का मार्ग 'अल्प' (बहुत ही सरल और कम प्रयास वाला) करके दिखाया है। ईश्वर को कर्मकांड से ज़्यादा निर्मल भक्ति और प्रेम का भाव प्रिय है। इसीलिए भक्ति के द्वार हर सामान्य व्यक्ति के लिए खुले हैं।
२. कलियुग में सर्वश्रेष्ठ साधन (The Supreme Tool for Kali Yuga)
कलियुगामाजी करावें कीर्तन । तेणें नारायण देईल भेटी ॥ध्रु.॥
यह अभंग का आधार स्तंभ है। तुकाराम महाराज कलियुग के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन निर्धारित करते हैं।
'कलियुगामाजी करावें कीर्तन': कलियुग में मनुष्य अल्पायु है, उसका मन अस्थिर है और उसमें कठोर तपस्या की शक्ति कम है। ऐसे में कीर्तन और सामूहिक नामस्मरण ही सबसे प्रभावी साधन है। कीर्तन में नाम, श्रवण और भक्ति का समुदाय होता है, जिससे मन को एकाग्र करना सरल हो जाता है।
'तेणें नारायण देईल भेटी': जब भक्त शुद्ध हृदय से कीर्तन करता है, तब 'नारायण देईल भेटी' (परमेश्वर स्वयं आकर उसे दर्शन देते हैं)। इसका अर्थ केवल मूर्ति दर्शन नहीं, बल्कि चित्त शुद्धि और आत्मसाक्षात्कार है।
३. संसार के त्याग की आवश्यकता नहीं (Renunciation of Worldly Life is Unnecessary)
न लगे लौकिक सांडावा वेव्हार । घ्यावें वनांतर भस्म दंड ॥२॥
इस चरण में तुकाराम महाराज संन्यास मार्ग के बाहरी आडंबर का खंडन करते हैं।
'न लगे लौकिक सांडावा वेव्हार': भक्ति करने के लिए 'लौकिक सांडावा वेव्हार' (संसार के काम-काज, नौकरी, व्यवसाय या पारिवारिक कर्तव्यों) को छोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। सच्ची भक्ति मन में होनी चाहिए; आप संसार के कर्तव्य निभाते हुए भी मन को भगवान के चरणों में लगा सकते हैं। संसार में रहना ही परमार्थ सिद्ध करने का उत्तम क्षेत्र है।
'घ्यावें वनांतर भस्म दंड': मोक्ष के लिए 'वनांतर' (जंगल/अरण्य) में जाकर संन्यासी का वेष, शरीर पर 'भस्म' लगाना या 'दंड' (लाठी) धारण करना, यह सब बाहरी दिखावा है। सच्ची भक्ति वेष में नहीं, बल्कि विचार और आचरण में होती है।
४. नामस्मरण का अंतिम निष्कर्ष (The Final Conclusion on Naam-Smaran)
तुका म्हणे मज आणिक उपाव । दिसती ते वाव नामेंविण ॥३॥
यह श्लोक तुकाराम महाराज के अनुभव और अंतिम विश्वास का प्रतीक है।
'तुका म्हणे मज आणिक उपाव': तुकाराम महाराज अपने अनुभव से कहते हैं कि, मुझे इस नामस्मरण के अलावा (विट्ठल के नाम के बिना) अन्य जो कुछ भी उपाय 'दिसती ते वाव' (दिखाई देते हैं, वे सब व्यर्थ/अधूरे हैं)।
'नामेंविण' (नाम के बिना) कोई भी मार्ग या उपाय सच्चा मोक्ष नहीं दे सकता। नामस्मरण ही अंतिम, सबसे प्रभावी और अत्यंत सुलभ साधन है।
निष्कर्ष:
तुकाराम महाराज स्पष्ट करते हैं कि कठोर शरीर दंड या संसार का त्याग करके नहीं, बल्कि केवल कीर्तन और नामस्मरण के सहज मार्ग से कलियुग में परमेश्वर की प्राप्ति होती है। यह मार्ग हर सामान्य व्यक्ति के लिए खुला है।
टिप्पण्या
टिप्पणी पोस्ट करा